Tuesday, February 1, 2011

'बूढ़े दरख्त..'




...


"मोहब्बत में सुलगे जिस्म..अब कहाँ मिलते हैं..
जिस्म से रूह के नाते..अब कहाँ सिलते हैं..१..

रहने दे बेरुखी का आलम..तेरे दर पे सनम..
बूढ़े दरख्त पे घरौंदे..अब कहाँ खिलते हैं..२..

उल्फत जगमगाती है सितारों को हर शब..
ज़ख़्मी आरज़ू-से रुखसार..अब कहाँ छिलते हैं..३..

वफ़ा की आँधी जलाएगी नश्तर..हर नफ्ज़..
हबीब की बाजुओं में ख्वाब..अब कहाँ हिलते हैं..४..!!"

....

6 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:

Anonymous said...

प्रश्नवाचक गजल बहुत बढ़िया रही!

वाणी गीत said...

जिस्म से रूह के नाते अब कहाँ सिलते हैं ...
जिस्मों और रूहों की बस्ती अलग हो गयी है !

सवालों ने तो लेकिन रूहों को छुआ ही होगा !

priyankaabhilaashi said...

धन्यवाद मयंक साहब.!!

priyankaabhilaashi said...

धन्यवाद वाणी गीत जी..!!

संजय भास्‍कर said...

अनोखे भाव, अनूठी काव्य रचना।

संजय भास्‍कर said...

कुछ दिनों से बाहर होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
माफ़ी चाहता हूँ